Bhagwat Geeta Adhyay 1 : अर्जुन विषादयोग - Hanuman Chalisa Lyrics

Bhagwat Geeta Adhyay 1 : अर्जुन विषादयोग

Bhagwat Geeta Adhyay 1 in Hindi अर्जुन विषादयोग उन पात्रों और परिस्थितियों का परिचय कराता है जिनके कारण पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत का महासंग्राम हुआ। यह अध्याय उन कारणों का वर्णन करता है जिनके कारण भगवद गीता का ईश्वरावेश हुआ। जब महाबली योद्धा अर्जुन दोनों पक्षों पर युद्ध के लिए तैयार खड़े योद्धाओं को देखते हैं तो वह अपने ही रिश्तेदारों एवं मित्रों को खोने के डर तथा फलस्वरूप पापों के कारण दुखी और उदास हो जाते हैं। इसलिए वह श्री कृष्ण को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करते हैं। इस प्रकार, भगवद गीता के ज्ञान का प्रकाश होता है।

Bhagwat Geeta Adhyay 1 : अर्जुन विषादयोग

Bhagwat Geeta Adhyay 1 : अर्जुन विषादयोग

 

श्लोकः 1 

तात्तराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥

अनुवादः

धृतराष्ट्र ने कहा-हे संजय! धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

 

श्लोकः 2

सञ्जय उवाच दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।

आचार्यमुपस‌ङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवादः

संजय ने कहा-हे राजन् ! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे।

 

श्लोकः 3

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥

अनुवादः

हे आचार्य! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखें, जिसे आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है।

 

श्लोक: 4

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥

अनुवादः

इस सेना में भीम तथा अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर धनुर्धर हैं – यथा महारथी युयुधान, विराट तथा द्रुपद।

 

श्लोक: 5

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥ ५ ॥

अनुवादः

इनके साथ ही धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज तथा शैब्य जैसे महान शक्तिशाली योद्धा भी हैं।

 

श्लोक: 6

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥

अनुवादः

पराक्रमी युधामन्यु, अत्यन्त शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र-ये सभी महारथी हैं।

 

श्लोकः 7

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥

अनुवादः

किन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! आपकी सूचना के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं।

 

श्लोकः 8

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८ ॥

अनुवादः

मेरी सेना में स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो युद्ध में सदैव विजयी रहे हैं।

 

अध्याय 1 : Bhagavad Gita PDF in Hindi

 

श्लोकः 9

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ९ ॥

अनुवादः

ऐसे अन्य अनेक वीर भी हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए उद्यत हैं। वे विविध प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और युद्धविद्या में निपुण हैं।

 

श्लोकः 10

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १० ॥

अनुवादः

हमारी शक्ति अपरिमेय है और हम सब पितामह द्वारा भलीभाँति संरक्षित हैं, जबकि पाण्डवों की शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति संरक्षित होकर भी सीमित है।

 

श्लोकः 11

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागवमस्थिताः ।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥

अनुवादः

अतएव सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोचों पर खड़े रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी-पूरी सहायता दें।

 

श्लोक: 12

तस्य सञ्जनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः ।

सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥

अनुवादः

तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ।

 

श्लोकः 13

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥

अनुवादः

तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग सहसा एकसाथ बज उठे। वह समवेत स्वर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण था।

 

श्लोकः 14

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्‌खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥

अनुवादः

दूसरी ओर से श्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।

 

श्लोकः 15

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥

अनुवादः

भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक भयंकर शंख बजाया।

 

श्लोकः 16-18

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥

 

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७

 

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।

सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥

अनुवादः

हे राजन् ! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये। महान धनुर्धर काशीराज, परम योद्धा शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आदि सबों ने अपने-अपने शंख बजाये।

 

श्लोकः 19

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥ १९ ॥

अनुवादः

इन विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण करने लगी।

 

श्लोकः 20

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।

हषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥ २० ॥

अनुवादः

उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ। हे राजन् ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से ये वचन कहे।

 

श्लोक: 21-22

अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान् ॥ २१ ॥

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥

अनुवादः

अर्जुन ने कहा-हे अच्युत ! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे मैं यहाँ उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों की इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ।

 

श्लोकः 23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥

अनुवादः

मुझे उन लोगों को देखने दीजिये जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने की इच्छा से लडने के लिए आये हुए हैं।

 

 

श्लोकः 24

सञ्जय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥

अनुवादः

संजय ने कहा-हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया।

 

अध्याय 1 : Bhagavad Gita PDF in Hindi

 

श्लोक: 25

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ २५ ॥

अनुवादः

भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरूओं को देखो।

 

श्लोकः 26

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान्।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥ २६ ॥

अनुवादः

अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा।

 

श्लोकः 27

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥ २७ ॥

अनुवादः

जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करूणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला।

 

श्लोकः 28

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥ २८ ॥

अनुवादः

अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है।

 

श्लोक: 29

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।

गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥ २९ ॥

अनुवादः

मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है।

 

श्लोकः 30

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ ३० ॥

अनुवादः

मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं।

 

श्लोकः 31

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।

न काङ्क्ष विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥ ३१ ॥

अनुवादः

हे कृष्ण ! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।

 

श्लोक: 32-35

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।

येषामर्थे का‌ङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२ ॥

 

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३३ ॥

 

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ॥ ३४ ॥

 

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥ ३५ ॥

अनुवादः

हे गोविन्द ! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं। हे मधुसूदन ! जब गुरूजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें? हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लडने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी?

 

श्लोकः 36

पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान् ।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३६ ॥

अनुवादः

यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अतः यह उचित नहीं होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण ! इससे हमें क्या लाभ होगा? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं?

 

श्लोक: 37-38

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३७ ॥

 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मन्निवर्तितुम् ।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३८ ॥

अनुवादः

हे जनार्दन ! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकमों में क्यों प्रवृत्त हों ।

 

श्लोक: 39

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ३९ ॥

अनुवादः

कुल का नाश होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है।

 

श्लोकः 40

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।

स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४० ॥

अनुवादः

हे कृष्ण! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी! अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती हैं।

 

श्लोक: 41

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४१ ॥

अनुवादः

अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे (पितर लोग) गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं।

 

श्लोक: 42

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णस‌ङ्करकारकैः ।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४२ ॥

अनुवादः

जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण- कार्य विनष्ट हो जाते हैं।

 

अध्याय 1 : Bhagavad Gita PDF in Hindi

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